परिवार न्यायालय की भूमिकाः घरेलू हिंसा के संदर्भ में
Abstract
प्राचीन काल से ही भारतीय समाज की प्रकृति पुरुषसत्तात्मक रही है, इसीकारण भारतीय परिवारों की प्रकृति भी पुरुष प्रधान है। इसी वजह से परिवार में महिलाएं हमेशा पुरुषों के संरक्षण में रहती आईं हैं- कभी पिता के, कभी भाई के, कभी पति के तो कभी बेटे के। परिवार में हर निर्णय केवल पुरुषों के द्वारा या कभी-कभी महिलाओं की सहमति से लिए जाते रहे हैं और कुछ परिस्थितियों में तो महिलाओं की मौन स्वीकृति ही मान ली जाती है। इसीलिए महिलाएं परिवार में कब उत्पीड़न और घरेलू हिंसा का शिकार होने लगीं स्वयं उन्हें भी पता नहीं चला। जिसका मुख्य कारण धार्मिक रीतिरिवाज और कुछ मान्यताएं रही हैं, जैसे-“पति परमेश्वर होता है”, वो जो करे वही सही है तथा “बेटियाँ पराया धन होती हैं या शादी के बाद पति का घर ही उनका घर होता है”। इसी वजह से स्त्रियों में आत्मविश्वाश की निरंतर कमी आती गई और वे स्वयं को हीन समझने लगीं। वे स्वयं पर हो रहे अत्याचारों को सहन तथा उसे अपनी किस्मत समझ कर सहन करने लगीं। स्त्रियों का आर्थिक रूप से सक्षम न होना भी हिंसा का प्रतिरोध करने के स्थान पर सहन करने का एक और कारण रहा है।
शब्द संक्षेप- भारतीय समाज, परिवार न्यायालय की भूमिका, घरेलू हिंसा, एवं स्त्री।
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