युवाओं के व्यक्तित्व विकास में सहायक श्रीमद्भगवद्गीता
Abstract
किसी भी देश का भविष्य उस देश के युवाओं की स्रजनात्मक शक्ति पर निर्भर करता है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार परमात्मा ने इस जगत में जड़ और चेतन दो प्रकार की सृष्टि की रचना की। जीवों की सृष्टि के क्रम में उसने सबका मंगल करने के लिए मनुष्य को बुद्धि-विवेक से अलंकृत कर जीवों में श्रेष्ठतर स्थान प्रदान किया। इसीलिए उस पर अन्य प्राणियों के कल्याण की जिम्मेदारी भी है। इसके साथ ही एक सिद्धांत बनाया कि मनुष्य के कर्म ही उसके सुख-दुख का कारण बनेंगे और श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कर्म ही प्रधान बताया इसमें उसका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। वह तटस्थ भाव से केवल साक्षी और द्रष्टा रहेगा। सभी भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्र इसी अवधारणा को मानते हैं। इसीलिए शास्त्रों में ईश्वर को सर्वत्र निर्विकार, निर्लिप्त, साक्षी और द्रष्टा कहा गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि मनुष्य अपना कर्म करते हुए ही जीवन में सिद्धि को प्राप्त करता है। यही ज्ञानयोग और भक्तियोग का भी आधार है।
अतः सुख-दुख, लाभ-हानि एवं यश-अपयश का कारण स्वयं मनुष्य के कर्म हैं। श्रीमद्भगवद्गीता एक पूजनीय ग्रंथ है जो भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपरा में गहराई से अंतर्निहित है। इसकी प्राचीन उत्पत्ति और स्थायी प्रभाव इसे भारतीय संस्कृति की आधारशिला बनाते हैं। इस क्षेत्र में अनुसंधान इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित और कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह यथार्थ सत्य है और भौगोलिक सीमाओं से परे है। गीता की उत्पत्ति हजारों वर्ष पहले हुई और आज भी यह प्रासंगिक है, वर्तमान समय में सभी जगह गीता के ज्ञान को सर्वोपरि बताया गया है। आज के नव युवा अपनी प्रभावशीलता को बनाए रखने के लिए इसके ज्ञान को अपनाकर जीवन को सही दिशा में प्रबंधित करके किसी भी क्षेत्र में सफलता की नयी ऊँचाइयाँ हासिल कर सकते हैं और अपने राष्ट्र के विकास में अहम् भूमिका निभा सकते है। श्रीमद्भगवद्गीता आज की जटिल चुनौतियों और समाज में व्याप्त कई सारी बुराइयों का सामना करने की सामर्थ्य प्रदान करती है।
मुख्य शब्द- युवा, राष्ट्र, संपत्ति, सफलता, नागरिक, सामर्थ्य आध्यात्मिक, प्रभावशीलता, प्रबंधक, प्रबंधन एवं सशक्त।
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