भारत विभाजन और स्त्रियों की खामोश आवाजें
Abstract
15 अगस्त 1947 को भारत को आज़ादी मिली किंतु इसकी कीमत भारत विभाजन के रूप में चुकानी पड़ी। हम विभाजन को किस प्रकार ग्रहण करते हैं? विभाजन बहुत ही अल्पकालीन समय में स्वीकार किया गया था। आम लोग, जो हिन्दू, मुस्लिम, सिख साथ मिलकर भारत के स्वतंत्रता की लड़ाई लड़े थे, उनकी मनःस्थिति इस विभाजन को समझ पाने की नहीं थी। अपनी जड़ों से उजड़े जाने का दर्द, अपनी पहचान, अपनी भौतिक सम्पत्ति छीन जाने का आक्रोश शीघ्र ही दूसरे सम्प्रदाय के प्रति वैमनस्व में बदल गया। बड़े पैमाने पर दंगे भड़के। लाखों लोग सीमा पार कर नये देश के वाशिंदे बने। लाशों से लदी रेलगाड़ी, लिंग आधारित हिंसा की शिकार महिलाऐं, जलते घर और असुरक्षित शरणार्थी शिविर उस समय के आम दृश्य बन गए थे।
इन तमाम भयावहता के बीच महिलाओं ने दर्द की दोहरी यातनाओं से गुज़रीं। उजड़े जाने और परिवारों से बिछड़ जाने का साथ ही वह शक्ति प्रदर्शन का औजार बनी। स्त्रियों के ऊपर हुई हिंसा और बाद के समय में मानसिक निवर्सन और विध्वंस की स्मृति के कैसे जुझती रहीं, यह इस शोधपत्र के अध्ययन का विषय है। नये दस्तावेज, संस्मरण, साहित्य के साथ ही मौखिक इतिहास (विभाजन से प्रभावित लोगो का साक्षात्कार जो मुख्यतः उर्वशी बुटालिया द्वारा किया गया) मुख्य शोध प्रविधि रहेगी। यह अध्ययन इतिहास, समाजशास्त्र, नृजातीयता और लैंगिक अध्ययन पर आधारित अर्तंरअनुशासनिक ;प्दजमतकपेबपचसपदंतलद्ध है। यह अध्ययन विभाजन को सामूहिक सांस्कृतिक क्षति बोध के रूप में देखता है। इस अध्ययन का उद्देश्य विभाजन के दौरान हुई हिंसा की शिकार स्त्रियों की व्यक्तिगत कहानी, स्मृति को सहेजना है ताकि इस आघात, सामाजिक दबाव और शर्म से जो चुप्पी व्याप्त है, उसे तोड़ा जा सके और हिंसा के मानवीय, कालव्यापी और देशव्यापी प्रभाव को देख सकें तथा आने वाली पीढ़ियों के लिए एक इतिहास का सबक तैयार कर सके।
कीवर्ड- आज़ादी का अमृत महोत्सव, विभाजन, विरासत, स्त्रियों का अस्तित्व, पिंजर, लाशों से भरी रेलगाड़ियाँ।
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