प्राकृत साहित्यानुसार जैन पञ्चांगीय काल विवेचन
Abstract
प्राकृत साहित्य, विशेषतः जैन आगमों और उत्तराध्ययन सूत्र, आदि ग्रंथों में काल-विवेचन का विशद वर्णन प्राप्त होता है। जैन दर्शन में काल को पंचांगीय पद्धति के अनुसार विभाजित किया गया है, जो समय की व्यापकता एवं चक्रात्मकता को दर्शाता है। जैन कालचक्र दो मुख्य भागों में विभाजित है- उत्तरसंघी और अवसर्पिणी, जो पुनरावृत्तिशील हैं और प्रत्येक छह कालों में विभाजित होते हैं। प्राकृत ग्रंथों में इन कालों के लक्षण, गुण, समाज की स्थिति, नैतिक मूल्यों तथा आध्यात्मिक पतन/उत्थान की स्थिति का विश्लेषण किया गया है। यह शोध-पत्र जैन पंचांगीय काल-विवेचना की अवधारणा को प्राकृत साहित्य के आधार पर प्रस्तुत करता है, साथ ही यह भी विश्लेषण करता है कि किस प्रकार यह समय दृष्टिकोण भारतीय सांस्कृतिक और दार्शनिक परंपरा में अद्वितीय स्थान रखता है।
मुख्य शब्द - प्राकृत साहित्य, जैन दर्शन, पंचांगीय काल, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, कालचक्र, जैन आगम, उत्तराध्ययन सूत्र
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