लैंगिक समानता की स्थापना में जनहित याचिकाओं की भूमिका
Abstract
भारत एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था वाला देश है, जिसमें महिलाओं का स्थान केवल पुरुषों के उद्देश्यों की पूर्ति के साधन मात्र का होता है,गर्भ से ही कन्या को भेदभाव का शिकार बनना पड़ता है, और बचपन में भी उन्हें उन सभी खेलों सामानों से अलग रखा जाता है जिन पर उनका भी उतना ही अधिकार है,जितना अधिकार लड़कों का है, बहुत सी बच्चियां जो बचपन मे ही किसी यौन हिंसा का शिकार हो चुकी हैं या उनके साथ इस तरीके के कृत्य किए जा रहे है ऐसी स्थिति में भी परिवार उनको मनोदशा को समझने के स्थान पर उन्हें ही दोषी करार दे देते है, गर्भ से ही यह लैंगिक भेदभाव शुरू होता है जिसका कभी अन्त नहीं होता बचपन के खेल खिलौने मे या वेशभूषा सभी को लैंगिक आधार पर ही तय किया जाता है, किशोरावस्था तक आते आते लड़किया उसे ही सत्य मानकर अपना जीवन जीने लगती है, जिसमें तमाम तरह की बदिशें जैसे- घर से बाहर पढ़ने के लिए न भेजना, उच्च शिक्षा के लिए रोकना ,अपनी पसन्द के कपड़े पहनने पर रोकना,समय से घर आने का दबाव, घर के कामकाज की जिम्मेदारी, परिवार की आस्मिता को सुरक्षित रखने का दबाव ,उन पर थोप दी जाती है, जहाँ लड़को की जिदें पूरी होती है वहाँ लड़कियों की नितान्त आवश्यक जरूरते भी पूरी नहीं हो पाती और ऐसे ही धीरे-धीरे ये लैंगिक विषमता एक पराधीन, निर्णय लेने मे अक्षम, और पितृसत्ता को पीढ़ी दर पीढ़ी अग्रसारित करने वाली संरक्षिका को जन्म देती है, अब उस स्त्री की मूल्य व्यवस्था व सोचने का तरीका पितृसत्तात्मक हो चुका है, इसलिए जब हम कहते हैं कि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु होती है तो उसके पीछे भी यही पितृसत्तात्मक मूल्य होते हैं, प्रसिद्ध नारीवादी विचारक सिमोन दी बुआ ने कहा है-“स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री बनायी जाती है”।
शब्द संक्षेप- जेंडर आधारित हिंसा, लैंगिक समानता, नारीवाद एवं जनहित याचिकाओं की भूमिका।
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