वर्तमान समय की मांगः भारतीय शिक्षा का स्वदेशीकरण
Abstract
आदिकाल से भारत वैदिक संस्कृति, सभ्यता, संस्कार व शिक्षा का केन्द्र रहा है। विश्व के इतिहास पर हम दृष्टि डालें तो पायेंगे कि भारतीय शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता व संस्कार के लिए विश्व के लोग भारत आते रहे हैं। विश्व के मंच पर भारतीय राजनीति सामाजिक, साहित्य और शैक्षिक जीवन मूल्यों को प्रचारित किया जाता रहा है। परन्तु हमारे देश पर विदेशी आक्रांताओं ने लगभग 1000 (एक हज़ार) वर्षों तक राज किया जिसके परिणामस्वरूप भारतीय शिक्षा का उद्देश्य मूल्य व संस्कार में कुछ बदलाव हुआ। इससे राष्ट्रीय व सामाजिक भावना से हट कर हम स्व की भावना में जीने लगे हैं। हमारी शिक्षा को उन आक्रांताओं ने अपनी तरह से परिवर्तन किये, जिसका परिणाम यह रहा कि भारतीय मानव अपने शैक्षिक संस्कारों को भूलकर वह आर्थिक चकाचौंध में फँस गया और अपने शैक्षिक मूल्यों का हनन कर बैठा। यहाँ पर शैक्षिक संस्कार का अर्थ है कि वैयक्तिक, सामाजिक और प्रशासनिक आचार के नियमों से है। इन नियमों को इस प्रकार से प्रसारित किया गया कि कोई भी व्यक्ति इन नियमों को सरलता से तोड़ने में भय खाते थे। शिक्षा के पाश्चात्यीकरण से भारतीय सामाएं असुरक्षित हो गयीं। राज्यों की सीमाएं घटने-बढ़ने लगीं, प्रान्त विभक्त व संयुक्त होने लगे। शासक वंश बदलते रहे और अनेक नये धर्मों और सम्प्रदायों ने जन्म लिया। विरोधी मतों और सिद्धांतों का उदय हुआ, शैक्षिक मूल्यों का हनन हुआ जिसके कारण वर्तमान समय में यह आवश्यक हो गया है कि लेह-लद्दाख से लेकर रामेश्वरम तक, द्वारका से लेकर कामाख्या तक भारतीय समाज को एक सूत्र में बांधने के लिए शिक्षा का स्वदेशीकरण होना चाहिए।
प्रमुख शब्द-आदिकाल, प्राचीन भारत, समाज, संस्कार, जीवन मूल्य, भारतीय शिक्षा, वैदिक संस्कृति, सभ्यता, पाश्चात्यीकरण, स्वदेशीकरण आदि।
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